प्रश्न: सर पिछले सत्र में ये बात हुई थी कि जो तथाकथित दुःख होता है, उस दुःख को भी पूरे तरीके से महसूस करो। और जो सुख होता है, उसको भी पूरे तरीके से महसूस करो। और ये दोनों सामान होते हैं। मुझे जो समझ आया था इसका मतलब, वो यही है कि जो दुःख हो रहा है, उसको महसूस करो। ये मत बोलो कि सुख आना चाहिए। जो दिया है वो ठीक है। क्या मैंने ठीक समझा है?
वक्ता: दुःख दिक्क़त तब देता है, जब उसका विरोध करो। सुख भी नर्क तब बन जाता है, जब उसकी इच्छा करो। दुःख को यदि विरोध आप न दें, तो क्या वो वास्तव में कोई गड़बड़ बात होगी? मैं जो बोल रहा हूँ समझिए। दुःख, ‘दुःख’ क्यों है? क्योंकि आपके भीतर कोई है, जो उसे नहीं चाहता। जब मैं कह रहा हूँ कि दुःख को गहराई से अनुभव करो, तो मैं कह रहा हूँ कि उसका विरोध करो ही मत। वो जो भीतर बैठा है, जो दुःख को रोकता है, और सुख को आमंत्रित करता है, उसको हटाओ।
दुःख को गहराई से अनुभव करो – वो तभी हो पाएगा ना जब तुम दुःख को रोको नहीं। तो तुम्हारे भीतर कोई बैठा है, जो दुःख को रोकता है। तुम्हारे भीतर कोई बैठा है, जो दुःख के विरोध में खड़ा है। वो लगातार कोशिश कर रहा है कि जीवन दुःख से बचा रहे। और उसी की साथ में ये भी कोशिश है कि सुख आता रहे। उसको हटाओ। अब दुःख आए तो पूरा गहराई तक आए, वहाँ कोई खड़ा नहीं है विरोध करने वाला। सुख आए, पूरा-पूरा आए। वहाँ भी कोई नहीं है जो कह रहा हो, “अरे अभी पूरा नहीं पड़ा, थोड़ा और दे दीजिए।”
आईये, न कोई आमंत्रित करने के लिए खड़ा है, न कोई विरोध करने के लिए खड़ा है, पूरा-पूरा आईये।
श्रोता २: सर ये ‘हटने’ का मतलब क्या है, कि हम उसको देखने लगे?
वक्ता: (प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए) तुम बाज़ार में गिर गए, और वहाँ तुम्हारे सब दोस्त-यार थे, कुछ लड़कियाँ भी थीं, ठीक? बड़ा दुःख हुआ। वो देख रहे हैं कि अंशु गिर पड़ा कीचड़ में। तुम्हारे भीतर कोई बैठा है ना जिसने उस घटना को ‘दुःख’ का नाम दिया, जो विरोध कर रहा है उस घटना का? कौन बैठा है? तुम्हारे भीतर कोई बैठा है ना जो कह रहा है कि ये घटना दुःख है, और चाहता था कि ये घटना ना घटे, विरोध कर रहा था उस घटना का? वो कौन है?
श्रोता १: एक तरीके की कंडीशनिंग(संस्कार)।
वक्ता: बेवकूफ़ियाँ हैं हमारी, संस्कार हैं हमारे। मैं कह रहा हूँ कि, यदि वो न हों, तो क्या अब तुम इस घटना का विरोध करोगे?
श्रोता १: नहीं।
वक्ता: तुम गिर गए, जैसे और हँस रहे हैं, वैसे ही तुम भी हँसोगे, क्योंकि अब तुम्हारी ये इच्छा ही नहीं है कि दूसरे तुम्हारी तारीफ़ करें। मैं ये कह रहा हूँ कि जब दुःख आए, तो विरोध न करो। एक बैठा है भीतर, जो दुःख को ‘दुःख’ बना देता है विरोध करके। उसी के कारण दुःख, ‘दुःख’ है, अन्यथा मात्र एक स्थिति है। तुमने स्थिति को समस्या बना दिया है ना। विरोध करके तुमने स्थिति को समस्या बना दिया।
दुःख कही नहीं है, समझना बात को, स्थितियाँ हैं। दुःख तुम्हारे विरोध में है। ये बात जिसने समझ ली, बस उसने फिर समझ ही लिया सबकुछ। सब स्थितियाँ हैं। पर तुम कुछ चाहते थे, कोई और उम्मीद लेकर बैठे थे, तो तुम स्थितियों का विरोध करते हो। इस विरोध का नाम ‘दुःख’ है। मात्र स्थितियाँ हैं।
श्रोता २: पर जैसे आप कह रहे हैं कि दोनों ही, सुख और दुःख, एक ही हैं। हमारा उनके ऊपर नज़रिया उनको अलग-अलग बना देता है। पर क्या ऐसा नहीं है कि एक शारीरिक माँग है, एक प्लेज़र प्रिन्सिप्ल (भोग सिद्धांत) है जिसकी तरफ़ हम भाग रहे हैं?
वक्ता: हाँ ऐसा ही है।
श्रोता १: तो फिर तो ये बड़ा ‘नैचुरल‘ नहीं है कि हम भोग को चाहेंगे, और पीड़ा का विरोध करेंगे?
वक्ता: अभी तुम्हारे छात्रों को मैं ‘नैचुरल’ शब्द का अर्थ समझा रहा था। ‘नैचुरल’ जब बोल देते हो ना तुम, तो क्या करते हो? किसी भी चीज़ को नैचुरल बोल देते हो। अपनी आदतों को बोल देते हो, “वो तो नैचुरल-सी बात है।” अपनी कंडीशनिंग (संस्कार) को बोल देते हो, “ये तो नैचुरल है।”
स्वभाव होता है नैचुरल। उसके अतिरिक्त और कुछ नैचुरल नहीं है।
हमारी जितनी बेवकूफ़ियाँ हैं, हम बोल देते हैं, “ये तो नैचुरल-सी बात है। ये तो हर कोई करता है।” ‘नेचर’ माने स्वभाव। आदतों को नेचर नहीं कहते, प्रकृति को नेचर नहीं कहते।
श्रोता १: मेरा मतलब फिजियोलोजिकल (शारीरिक-क्रिया संबंधित) अर्थ में था।
वक्ता: फिज़ियोलॉजिकल है, नेचर नहीं है ना। फिज़ियोलॉजिकल है, ठीक है। ये बोलो तो कि फिज़ियोलॉजिकल है। तुम कहाँ बोलते हो, “फिज़ियोलॉजिकल है”? तुम बोलते हो, “प्रेम है।” लकड़ियों की तरफ आकर्षण जब होता है तुम्हारा, तो कभी बोलते हो, “सर फिज़ियोलॉजिकल है”? बोतले हो? क्या बोलते हो? क्या बोलते हो? तुम कहाँ बोलते हो कि फिज़ियोलॉजिकल है? टांग में दर्द होता है, कभी बोलते हो कि, “फिज़ियोलॉजिकल है”? क्या बोलते हो?
श्रोता ३: ‘मुझे’ दर्द हो रहा है।
वक्ता: “मुझे दर्द हो रहा है।” बोलो ना कि फिज़ियोलॉजिकल है। स्वभाव नहीं है, सिर्फ़ फिज़ियोलॉजी है। कहाँ बोलते हो?
श्रोता १: सर पीड़ा और दुःख, दोंनो अलग-अलग हैं।
वक्ता: हाँ। पीड़ा का यदि आप विरोध ना करें, तो वो दुखी नहीं करेगी।
श्रोता ३: सर, एक उक्ति भी है आपकी, “पेन इज नॉट ऑप्शनल बट सफ्फरिंग इज़ (पीड़ा ऐच्छिक नहीं है, संताप है)।”
~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।
सत्र देखें: Prashant Tripathi: मन जिसका विरोध करता है, उसी का नाम दुःख रखता है
इस विषय पर और लेख पढ़ें:
लेख १: तुम ही सुख दुःख हो
लेख २: दुःख – सुख की स्मृति
लेख ३: न समर्थन, न विरोध
लेख ४: मेरा असली स्वभाव क्या है?
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सप्रेम,
प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन
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