प्रश्न: स्वीकृति, मान्यता हमारे लिए इतना महत्व क्यों रखती है? जब कोई नहीं होता तो हम खुद अपनेआप को अपनी स्वीकृति देने लगते हैं।
वक्ता: स्वीकृति से, मान्यता से नियंत्रण का भाव आता है। जो हो रहा है वो मेरे चाहे हो रहा है। मैं पूरे नियंत्रण में हूँ। नहीं मैं बह नहीं रहा हूँ, मैं तो अपेक्षित दिशा में ही जा रहा हूँ। मेरी नाव हवाओं के साथ नहीं है, मेरी नाव मेरी मर्ज़ी के साथ है।आप देखिएगा वही घटना हो रही हो, अभी उसपर आपकी स्वीकृति की मोहर न लगी हो, आप उसका विरोध करने लगेंगे, और कोई आकर के आपकी सिर्फ एक झूठी, नाममात्र की स्वीकृति ले ले तो फिर आपको वो चीज़ स्वीकार हो जाएगी।
घर के बच्चे को कहीं जाना है, जाना उसे वहीं है जहाँ उसे जाना है, पर माँ-बाप का ख़ास ज़ोर इस बात पर रहता है कि हमारी स्वीकृति ले कर के जाओ। इस स्वीकृति में अकसर बच्चे की कोई भलाई नहीं है सिर्फ माँ-बाप के अहंकार कि तुष्टि है। बच्चे की इसमें कोई भलाई नहीं है क्योंकि जाना उसे वहीं है जहाँ उसे जाना है, आपका आग्रह बस इतना है कि हमारी अनुमति से गए के नहीं गए। बच्चे की भलाई महत्वपूर्ण नहीं है, आपका नियंत्रण में होना महत्वपूर्ण है, ‘हमारी अनुमति से गया है तो ठीक है।’
प्रेम विवाह आदि को लेकर के घरों में जो अकसर अड़चनें आती हैं वो इसलिए नहीं आती हैं कि आपके बच्चे ने जिसको चुना है उसमें कोई खोट है, अड़चन यह है कि उसने क्यों चुना। चुनाव में गलती नहीं हो गई है कि माँ-बाप विरोध में अब खड़े हैं, गलती इसमें है कि तुम्हें चुनने का हक़ किसने दिया! नियंत्रण में कौन हैं? हम, तो हमें ही तुम्हारा भाग्य निर्धारित करने दो।
जहाँ पर हमारी स्वीकृति से या अस्वीकृति से कोई अन्तर नहीं पड़ता हम वहां भी उसको ठूसे हुए हैं। आप अपनी भाषा को देखिये – मैं सांस ले रहा हूँ। ‘आप’ सांस ले रहे हैं, वाकई? ज्यादा नहीं बस आप चार मिनट के लिए रोक के दिखा दीजिये फिर। पर वहां भी हमारा दावा यह है जैसे सांस भी हमारी स्वीकृति से आ-जा रही हो। अच्छा लगता है, ‘जो हो रहा है वो मेरे मुताबिक हो रहा है।’ बढ़िया लगता है।
आप कुछ देखेंगे, कुछ सोचेंगे, कुछ समझेंगे तो शब्द कैसे रहते हैं – फिर मैंने ये देखा, मैंने ये समझा और मैंने ये किया, जैसे की ये सब कुछ ‘आप’ के करे हुआ हो। यहाँ पर ये मशीनें हैं, ये लाइट है, ये एसी है, इन्हें क्या हक़ है ये कहने का कि पहले हम चले फिर हमेने ठंडा किया गया और फिर थोड़ी देर बाद हम चुप हो गए, बंद हो गए। पर ये बचे हुए हैं अभी, सौभाग्य है इनका कि इन्हें अहंकार की बीमारी नहीं लगी है, नहीं तो एसी का दावा जानते है क्या होता?
पहली बात तो ये कि मैं बहुत कूल हूँ और दूसरी बात हर इतवार सुबह नौ बजे मैं चला जाता हूँ और इनको सबको बोलता हूँ कि आकर बैठो यहाँ पर। फिर मैं कहता हूँ कि चलो बात-चीत शुरू करो, और मैं देख रहा हूँ तुम्हें ऊपर से कोई गड़बड़ नहीं करेगा। ये सब कुछ जो होता है वो बिलकुल मेरे नीचे नीचे होता है, और ये सब नीचे बैठ के करते क्या हैं? ये सब नीचे बैठ कर के मेरा गुणगान करते हैं कि प्रभु शीतलता दो। अगर उसमें अहंकार होता तो वो यही कहता कि जो हो रहा है वो मेरे करे हो रहा है, मेरी सहमति से हो रहा है, मरी स्वीकृति से हो रहा है। बड़ा अच्छा लगता है। मैं ही तो कर रहा हूँ, और कौन कर रहा है।
न आपके विचार आपके हैं, न आपके कर्म आपके हैं। दोनों ही तरह नहीं हैं आपके। जब अहंकार है तो आप मशीन बराबर हैं तो तब भी आपके नहीं और जब अहंकार नहीं है तो आप पूर्ण अस्तित्व हो गए तब भी आपके नहीं। आपका होना न होना, आपकी मर्ज़ी, आपकी मान्यता, इनकी क्या कीमत है? लेकिन अच्छा लगता है।
एक कहानी है – नन्हा राजकुमार (लिटिल प्रिंस), उसमें राजा है एक और वो एक ऐसे ग्रह का राजा है जहाँ पर सिर्फ वही है और शायद एक-आधे और हैं लोग। तो वो रोज़ अनुमति देता है – सूरज अब तुम उग सकते हो, सूरज अब तुम ढल सकते हो। जो होगा उस ग्रह पर वो उसकी मर्ज़ी से होगा क्योंकि वो राजा है तो सूरज भी कब उगेगा? तो ठीक जब सूरज के उगने का समय होता है वो जाकर के सूरज को आज्ञा दिया करता है – उगो! और ठीक ढलने के समय पर वो जाकर के पुनः आज्ञा देता है – ढल जाओ!
ऐसा ही हमारा जीवन है।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।
सत्र देखें: Acharya Prashant: स्वीकृति की चाह और नियन्त्रण का भाव (Desire for acceptance and the urge to control)
इस विषय पर और लेख पढ़ें:
लेख १: कर्ताभाव भ्रम है
लेख २: कर्ताभाव कौन त्यागेगा, कर्ता स्वयं ही मूल झूठ है
लेख ३: समर्पण सुविधा देख के नहीं
सम्पादकीय टिप्पणी:
आचार्य प्रशांत द्वारा दिए गये बहुमूल्य व्याख्यान इन पुस्तकों में मौजूद हैं:
Dil chhoo liya aapne
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प्रिय ध्रुव जी,
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सप्रेम,
प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन
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